शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

बचपन का सपना और 20 रुपये
कुछ सपने सबसे प्यारे और सबसे नेक लगते हैं ....बिल्कुल ओस की बूंदों की तरह ....नन्ही मुस्कान की तरह ....माँ के दुलार की तरह ....पहले प्यार की तरह ....और मुझे भी बहुत प्यारा था वो सपना ....सच बहुत प्यारा ...एक दम दिल के करीब ...कि जो सच हो जाये तो समझो कि दिल का मयूर नाचने लग जाए......

मैं भी कितना पागल था अजीब अजीब से सपने देखने लग जाता था ...कि अगर ऐसा हो जाए तो कैसा हो ....अगर मैं ये कर सकूँ ......तो आह मज़ा आ जाये ..... ऐसे ही मन में एक प्यारी सी ख्वाहिश पैदा हो गयी ....माउथ आर्गन बजाने की .....कि काश मेरे पास माउथ आर्गन हो तो मैं भी बजाना सीखूं .....कितना अच्छा लगेगा ...जब मैं माउथ आर्गन बजाऊंगा .....बस यही सोचते हुए कभी कभी तो दिल घंटो ख़ुशी से झूमता रहता ....

बस एक बार किसी फिल्म में देख लिए किसी को बजाते हुए ....तो हो गए लट्टू ...कि अरे वाह जब वो बजा सकता है तो हम क्यों नहीं .....और ये बात हमारा बहुत खूब जानता था ...बचपन ....बड़ा ही अजीब होता है ...कैसी कैसी प्यारी प्यारी ख्वाहिशें पैदा कर लेते हैं हम ....मुझे याद है कि बचपन में मेरा भाई बहुत जिद्दी हुआ करता था ...अगर किसी बात की ठान ले तो मजाल है कि उसे पूरा किये बिना मान जाये ...फिर तो चाहे उसको मार लो पीट लो ...कुछ भी कर लो ...पर वो मानने वाला नहीं ....

मुझे अच्छी तरह याद है कि जब महीने के अंतिम दिन हुआ करते थे ...तो कैसे हाथों को रोक कर मम्मी घर का खर्चा चलाती थीं ....आखिर एक मध्यम वर्गीय परिवार के हालत महीने के अंत में ऐसे ही हो जाते हैं ......एक बार जब स्कूल में मैडम ने रंग लाने के लिए कहा था ...कि अगर अगले रोज़ जो बच्चे रंग नहीं लाये तो ...उसे सजा मिलेगी .....

मेरा भाई कैसे जिद पकड़ कर बैठ गया था ...कि अगर स्कूल जायेगा तो रंग लेकर जायेगा ...नहीं तो जायेगा नहीं ....उस दिन घर में पैसे नहीं थे ...शायद महीने का अंतिम दिन होगा ....लाख समझाया कि अगले दिन ले देंगे ...पर नहीं जी ...हमारे भाई नहीं माने ....बात इतनी बढ़ गयी कि पिताजी ने गुस्से में आकर उसकी मार लगा दी ....तब भी वो स्कूल जाने के लिए राजी न हुआ ...तब कहीं जाकर माँ ने अपने संदूक में खोज बीन कर चन्द पड़े हुए सिक्के जमा कर ..उसके रंगों के पैसों का बंदोबस्त किया था .....और मैं बिना रंगों के गया था ....ऐसा था मेरा जिद्दी भाई ....पर एक बार की बात है ...जब राम नवमी के दिन थे ....माँ ने हम दोनों को पास के ही भैया के साथ झाँकियाँ देखने भेज दिया था ...माँ ने दोनों भाइयों के लिए कोई 20 रुपये दिए होंगे .....तब मैंने वो अपने भाई को ही रखने के लिए दे दिए थे ....जब हम वहाँ पहुँचे तो वो अपने दोस्तों के साथ मस्त हो गया ...और मैं उस में रम गया जहाँ लोग अपने अभिनय से लोगों का दिल बहला रहे थे ....मुफ्त में ...शायद कुछ ऐसा रहा हो ....सब कुछ देखने के बाद हम घर वापस आ गए ....अगले दो रोज़ बाद को मेरा जन्म दिन था .... घर पर जन्म दिन मनाया गया ....और जब केक काटने के बाद सभी लोग कुछ न कुछ गिफ्ट दे रहे थे ...तब मेरे भाई ने चमकीली पन्नी में लिपटा हुआ एक तौहफा दिया .....और कहा भैया अभी नहीं खोलना ...बाद में खोलना ....मैंने कहा ठीक है ...पर ये तुम लाये कहाँ से .....वो बस मुस्कुरा भर रह गया .....जब सब कुछ ख़त्म हो गया और सब के जाने के बाद मैंने वो खोला तो उसे देख के मैं उछल पड़ा ...अरे ये तो माउथ आर्गन है .....कहाँ से ...मतलब कैसे लाये तुम ....किसने दिलाया .....मैंने अपने भाई को बोला .....वो बोला उस दिन मैंने पूरे 20 रुपये का यही खरीद लिया था ....उस पल मुझे लगा ...कि हाय ...मेरा जिद्दी भाई भी इस कदर सोच सकता है ...बेचारे ने ना कुछ खाया ...और न ही अपने लिए कुछ लिया ...पूरे के पूरे पैसों से ...अपने इस बड़े भाई के सपने को पूरा करने के लिए सारे के सारे पैसे इसी में खर्च कर दिए ....उस पल मैं बयां नहीं कर सकता कि मुझे कैसा महसूस हो रहा था ...मैंने अपने भाई को बाहों में भर लिया .....सच वो पल भुलाये नहीं भूलता ....मेरा वो जिद्दी भाई ...मेरा वो प्यारा भाई ....अपनी सभी जिद ताक़ पर रख कर मेरे लिए माउथ आर्गन खरीद लाया .....सच उस पल ऐसा लगा कि ...मेरा सपना कुछ भी नहीं था ... ..उस ख़ुशी के आगे जो मेरे भाई ने उस पल मुझे दी थी .....हाँ मुझे याद है कि मैं माउथ आर्गन तो ज्यादा कुछ खास नहीं सीख सका ....लेकिन हाँ सीटी बजाना इतना अच्छा सीखा ....कि भाई क्या ...सब लोग कहते कि "दिल तो पागल है " का शाहरुख़ खान भी मेरे आगे पानी भरे आकर और कहे कि भाई मुझे ऎसी सीटी बजाना सिखा दो .....सच में बहुत सालों तक सीटी बजायी ....पूरी धुन के साथ ...हर गाने पर .....आज भी जब कभी धुन में होता हूँ तो सीटी बजाने लगता हूँ फिर वक़्त ने धीरे धीरे मेरे भाई को जिद्दी ना रहने दिया ...अब वो भी समझने लगा था कि ...एक मध्यम वर्गीय परिवार का गुजारा कैसे चलता है .....जिंदगी कैसे जी जाती है ...... हाँ ये जिंदगी ही तो है ...जो इंसान को सब कुछ सिखा देती है .....पर एक बात जो मुझे जिस पल भी याद आ जाती है ...कि किस कदर मेरे भाई ने उस बचपन में भी मेरी चाहत के बारे में सोचा .....सच बहुत प्यार आ जाता है ...मुझे अपने भाई पर .....मेरा वो प्यारा सा जिद्दी सा भाई

ड्रामा - ऐ - IPL!
आजकल IPL काफ़ी शोरगुल मचा रहा है। इतना शोर कि उसकी गूँज सदन में भी सुनाई दे रही है। अमरीकन नचइये के भड़कीले कपडों को लेकर बवाल मचा हुआ है। आख़िर वह कैसे इतने छुटले कपड़े पहन कर नाच सकती हैं? यह तो अन्याय है - अब हमारे बौलीवुड की अभिनेत्रियों का क्या होगा? आख़िर कुछ दिन पहले ही करीना ने टशन में आकर इतना "वेट लूज" किया है! और ये फिरंगी लौंडियाँ बीच में आकर हमारी राखी सावन्तों के पेट पे लात मार रही हैं!और ये क्या - लो जी श्रीसंत तो रो पड़े! आख़िर हुआ क्या ? भज्जी ने चमाट रसीद कर दिखा दिया कि पंजाब की टीम में न होने से कुछ नही होता - असली पंजाब के पुत्तर वही हैं। अब या तो श्रीसंत ने भी मर्द बनकर भज्जी को चम्टिया देना था या फ़िर चुपचाप सहन कर लेना चाहिए था। मगर पहले तो १०,००० लोगों के सामने प्रसाद पाया और फ़िर करोड़ों के सामने रो पड़े। अब हिंदुस्तान की टीम ऑस्ट्रेलिया जायेगी तो क्या कहेंगे वह लोग ?
वैसे विश्वसनीय सूत्रों का यह कहना है कि प्रीटी जिंटा से "जप्पी" न प्राप्त होने की वजह से वह रो पड़े। अब ये हाल अपनी "यंगिस्तान" की जेनरेशन के आइकन का है तो फ़िर हो गया कल्याण !खैर, मैं तहे दिल से आभारी हूँ IPL का - Is मनोरंजन भरे ड्रामे के लिए! अगला "मैच" भज्जी और शोएब के बीच में होना चाहिए। वैसे साइमंड्स भी इशांत शर्मा के साथ बौक्सिंग मैच का इरादा जता चुके हैं - तो हो जाए SETMAX पे इन्टरटेन्मेन्ट अनलिमिटेड!
नेता के टाइप - रेडीमेड, मेड और थोपित
शेक्सपिअर का कथन है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग अपने कर्म से महान होते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है ।
ऐसे ही भारतीय राजनीति में नेता भी 3 तरह के होते हैं । यद्यपि मैनें सुन रखा है कि आजादी के बाद देश में कोई नेता ही नहीं पैदा हुआ । लेकिन मुझे इस बात पर जरा भी यकीन नहीं है । इतने सारे नेता क्या आसमान से टपके हैं ।
जन्म से नेता - ऐसे नेताओं की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, राजनैतिक पार्टियां अपने अन्दर राजवंशों की तरह बर्ताव करने लगी हैं । पहले युवराज या राजकुमारी शिक्षा ग्रहण कर आने के बाद उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाते थे । ऐसे ही अब राजनीतिक पार्टी के आकाओं के सुपुत्र-सुपुत्रियों का भी भविष्य में पार्टी की बागडोर पकडना सुनिश्चित होता है । पार्टी पर शासन करने के लिये राजशाही खून जरूरी है। जिन्दगी भर पार्टी के लिये मरने खपने वाले वरिश्ठ नेता और कार्यकर्ता उनकी सेवा में लग जाते हैं । यह सोचकर की राजा तो राजवन्श का ही होगा वफ़ादार बने रहते हैं । जन्म से नेता होने के लिये राजपुत्र होना जरूरी नहीं है, बल्कि राजवन्श से किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी पैदाइशी नेता बनने की आवश्यक योग्यतायें हैं।
दूसरे तरह के नेता वे होते हैं जो पार्टी कार्यकर्ता से शुरु होकर क्रमशः ऊपर कि तरफ़ सरकते हैं । राजनीति का वह दौर अब समाप्त हो चुका है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों में भी गरीब घर से आने वाले प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गये थे । अभी तो फ़िलहाल ऐसी घटना घटने की कोई सम्भावना नहीं दिखती ।घिस-घिसकर ऊपर जाने वाले नेता अधबीचे तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाते हैं । ऐसे नेताओं का कद हमेशा जन्मना नेताओं से दोयम रहता है। बहुत जोर मारा तो अलग पार्टी बनाकर उसकी अगुआई करते हुए पुरानी पर्टी के नेताओं के सिद्धांत को कायम रखते हैं । या कोई सस्ते हथकन्डे अपनाकर एक दिन में राष्ट्रीय पहचान बना लेते हैं ।
तीसरे तरह के नेता वे होते हैं जिन पर नेतापन थोपा जाता है । इनको कम्पनी के ब्रान्ड अम्बेसडर समझिये । जैसे कोई कार बेचनी है तो किसी मॉडल को उसकी बगल में खडा कर दो । इस तरह के व्यक्ति वे होते हैं जिन्हे "सितारे" कहा जाता है, दूर से अच्छी लगने वाली मनोरंजक वस्तुयें । फ़िल्मी सितारे, मॉडल, क्रिकेट के खिलाडी, बडे-बडे उद्योगपति होते हैं । राजनैतिक दल इनकी लोकप्रियता को भीड इकट्ठी करने के लिये इस्तेमाल करते हैं । इस तरह की नेतागिरी लोकप्रियता की जमा पूंजी को राजनीति में इन्वेस्ट करने की होशियार कोशिश है । प्रायोजित नेता राजनीति में अपने पुराने धन्धे की वजह से ही जाने जाते हैं । यदि काम से रिटायर होकर आते हैं, तो ग्लैमर की एक दुनिया से निकलकर दूसरे में प्रवेश हुआ और एकाध बार सांसद वगैरह हो गये तो पैसा वसूल । यदि अभी काम कर रहे हैं (यद्यपि उधर भी मन्दी चल रही होगी या लोग रिटायर्मेन्ट की मांग करने लगे होंगे इसीलिये इधर रुख किये हैं ) तो चुनाव के बाद फ़िर अपने सूटिंग व्गैरह में व्यस्त हो जाना है भारतीय मानस चमत्कारों से चौंधियाना चाहता है दिमाग से कम भावुकता से ज्यादा काम लेता है, नहीं तो ऐन चुनाव के वक्त आकर पार्टी का सदस्य बनकर चुनाव क्षेत्र में आने वालों और उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की जुर्रत कराने वालों को जनता को रगेद देना चाहिए चाहे वह किसी भी पार्टी का हो

रविवार, 29 मार्च 2009

खेलों देशभक्ति का विकेंद्रीकरण
ज़रा इस सवाल का जल्दी से बिना ज़्यादा सोचे जवाब दें। भारत का राष्ट्रीय खेल कौन सा है?अगर आप सोच में पड़ गये या फिर आपका जवाब क्रिकेट, टेनिस जैसा कुछ था तो जनाब मेरी चिंता वाजिब है। हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है। पर पिछले कई दशकों में खेलों की हवा का रुख कुछ यों हुआ है कि हम मुरीद बने बैठे हैं एक औपनिवेशिक खेल के। और इस खेल में भी चैपल-गांगुली की हालिया हाथापाई दे तो यही पता चलता है कि खेलों पर आयोजक, चैलन, चयनकर्ता और राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि अब खिलाड़ी और कोच भी अपने हुनर नहीं राजनीतिक दाँवपेंचों के इस्तेमाल में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।हम बरसों से सुनते देखते आये हैं राष्ट्रीय और आलम्पिक्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में चयन के सियासी खेल की, कहानी जो हर बार बेहयाई से दोहराई जाती है। हमारे स्क्वॉड में जितने खिलाड़ी नहीं होते उनसे ज़्यादा अधिकारी होते हैं। हॉकी जैसे खेल, जिनमें हम परंपरागत रूप से बलशाली रहे, में हम आज फिसड्डी हैं और निशानेबाजी जैसे नए खेलों पर अब हमें आस लगानी पड़ रही है। 100 करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक स्वर्ण पदक के लिये तरसता है।हम यह भी सुनते रहते हैं कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड आयोजनों में स्टैमिना के मामले में युरोपिय देशों का सामना नहीं कर सकते, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जानबूझ कर हॉकी जैसे खेलों के नियमों में इस कदर बदलाव किये हैं कि सारा खेल ड्रिबलिंग जैसे एशियाई कौशल की बजाय दमखम का खेल बन गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि कब तक हम ये बहाने बनायेंगे। चीन भी तो एशियाई देश है और हॉकी पाकिस्तान भी खेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खेलों को छोड़ें, हमारे अपने घरेलू स्तर पर कितने बड़े आयोजन होते हैं? क्या स्कूलों में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल पर जोर दिया जाता है? मुझे यह विचार बड़ा रोचक लगा कि, "छोटी या स्थानीय देशभक्ति से खेलों का प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण हो सकेगा और इससे खेलों की राष्ट्रीय देशभक्ति फलेगी फूलेगी ही"। गेल का कहना यही है कि खेल की देशभक्ति भारत में केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लिये ही सामने आती है जबकि अमेरिका में ऐसा नहीं हैं।
तकरीबन कोई भी ध्यान नहीं देता अगर अमेरीका किसी अन्य देश के साथ खेल रहा हो जब तक की मामला आलम्पिक्स का न हो। अमेरिका में बड़े खेल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बल्कि महानगरीय या राज्य विश्वविद्यालय स्तर पर होते हैं...वहाँ छोटे शहरों, स्कूलों के स्तर पर देशभक्ति है। हर हाईस्कूल का अपना चिन्ह है, गीत है, विरोधी हैं। अमेरिका का ध्यान केवल फुटबॉल, बास्केटबॉल, बेसबॉल जैसे बड़े खेल ही नहीं खींचते। बच्चे हर स्पर्धा में भाग लेते हैं, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, बॉली बॉल, आइस हॉकी, जो भी खेल हो।निःसंदेह दिक्कतें और भी हैं। कब्बडी, खोखो, मलखम्ब जैसे घरेलू खेलों के खिलाड़ियों का न तो नाम हमारे राष्ट्रीय अखबारों में आता है न ही कोई उन पर पैसा लगाने को तैयार होता है। पैसों की बात तो अहम है, खास तौर पर जब खेल टेनिस जैसा ग्लैमर वाला न हो। कई दफा यह लगता है कि खेलों का बजट आखिर रक्षा या विज्ञान जितना क्यों नहीं होना चाहिये? गेल का इस विषय पर विचार अलग है। उनका कहना है कि सरकारी पैसे पर निर्भरता हो ही क्यों? अमरीका के विश्वविद्यालय खेलों के मर्केन्डाईज़ और टिकटों से कमा लेते हैं, खेलों से कमाई होती है तो इनके भरोसे गरीब परिवारों के बच्चे खेल वज़िफों पर विश्वविद्यालय में पढ़ लेते हैं। निजी फंडिंग से ही स्टेडियमों और खेल का साजो सामान का जुगाड़ होता है। सानिया मैनिया के दौर में क्या कोई इस बात को सुनेगा?
२००९ मुबारक
बवंडर के समस्त पाठकों व उनके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

बुधवार, 25 मार्च 2009

अब चाहिए एक हाइब्रिड नेता...

देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुनाव का बिगुल बज चुका है। आदर्श आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले सरकारें अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए एक से बढ़कर एक घोषणाओं, शिलान्यास, उद्‌घाटन, लोकार्पण और जातीय भाईचारा सम्मेलन जैसे कार्यक्रम पूरी तन्मयता से कर रही थीं। समय कम पड़ गया। आजकल नेताजी जनता की सेवा के लिए दुबले होते जा रहे हैं। इस समय अब मतदाता के सामने सोशल इन्जीनियरिंग के ठेकेदार पैंतरा बदल-बदल कर आ रहे हैं।
वोटर की चाँदी होने वाली है। भारतीय लोकतंत्र का ऐसा बेजोड़ नमूना पूरी दुनिया में नहीं मिलने वाला है। यहाँ राजनीति में अपना कैरियर तलाशने वाले लोग गजब के क्षमतावान होते हैं। इनकी प्रकृति बिलकुल तरल होती है। जिस बरतन में डालिए उसी का आकार धारण कर लेते हैं। जिस दल में जाना होता है उसी की बोली बोलने लगते हैं। पार्टीलाइन पकड़ने में तनिक देर नहीं लगाते।
आज भाजपा में हैं तो रामभक्त, कल सपा में चले गये तो इमामभक्त, परसो बसपा में जगह मिल गयी तो मान्यवर कांशीराम भक्त। कम्युनिष्ट पार्टी थाम ली तो लालसलाम भक्त। शिवसेना में हो जाते कोहराम भक्त, राज ठाकरे के साथ लग लिए तो बेलगाम भक्त। और हाँ, कांग्रेस में तो केवल (madam) मादाम भक्त...!
कुछ मोटे आसामी तो एक साथ कई पार्टियों में टिकट की अर्जी लगाये आला नेता की मर्जी निहार रहे हैं। जहाँ से हरी झण्डी मिली उसी पार्टी का चोला आलमारी से निकालकर पहन लिया। झण्डे बदल लिए। सब तह करके रखे हुए हैं। स्पेशल दर्जी भी फिट कर रखे हैं।
हर पार्टी का अपना यू.एस.पी.है। समाज का एक खास वर्ग उसकी आँखों में बसा हुआ है। जितनी पार्टियाँ हैं उतने अलग-अलग वोटबैंक हैं। सबका अपना-अपना खाता है। राजनीति का मतलब ही है - अपने खाते की रक्षा करना और दूसरे के खाते में सेंध मारने का जुगाड़ भिड़ाना। आजकल पार्टियाँ ज्वाइण्ट खाता खोलने का खेल खेल रही हैं ताकि बैंक-बैलेन्स बढ़ा हुआ लगे। कल के दुश्मन आज गलबहिंयाँ डाले घूम रहे हैं।
नेताजी माने बैठे हैं कि वोटर यही सोच रहा है कि अमुक नेताजी मेरी जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, सम्प्रदाय, व्यवसाय, बोली, भाषा, आदि के करीब हैं तो मेरा वोट उन्हीं को जाएगा। उनसे भले ही हमें कुछ न मिले। दूसरों से ही क्या मिलता था? कम से कम सत्ता की मलाई दूसरे तो नहीं काटेंगे...! अपना ही कोई खून रहे तो क्या कहना?
जो लोग देश के विकास के लिए चिन्तित हैं, राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचार, अपराध, अशिक्षा, और अराजकता को मिटाने का स्वप्न देखते हैं, वे भकुआ कर इन नेताओं को ताक रहे हैं। इनमें कोई ऐसा नहीं दिखता जो किसी एक जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, सम्प्रदाय, व्यवसाय, भाषा, बोली आदि की पहचान पीछे धकेलकर एक अखिल भारतीय दृष्टिकोण से अपने वोटर को एक आम भारतीय नागरिक के रूप में देखे। उसी के अनुसार अपनी पॉलिसी बनाए। आज यहाँ एक सच्चे भारतीय राष्ट्रनायक का अकाल पड़ गया लगता है।
हमारे यहाँ के मतदाता द्वारा मत डालने का पैटर्न भी एक अबूझ पहेली है। जो महान चुनाव विश्लेषक अब टीवी चैनलों पर अवतरित होंगे वे भी परिणाम घोषित होने के बाद ही इसकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत कर सकेंगे। इसके पहले तुक्केबाजी का व्यापार तेज होगा। कई सौ घंटे का एयर टाइम अनिश्चित बातों की चर्चा पर बीतेगा। इसे लोकतन्त्र का पर्व कहा जाएगा।
मेरे मन का वोटर अपने वोट का बटन दबाने से पहले यह जान लेना चाहता है कि क्या कोई एक व्यक्ति ऐसा है जो अपने मनमें सभी जातियों, धर्मों, क्षेत्रों, रंगो, सम्प्रदायों, व्यवसायों, भाषाओं और बोलियों के लोगों के प्रति समान भाव रखता हो? शायद नहीं। ऐसा व्यक्ति इस देश में पैदा ही नहीं हो सकता। इस देश में क्या, किसी देश में नहीं हो सकता। इस प्रकार के विपरीत लक्षणों का मिश्रण तो हाइब्रिड तकनीक से ही प्राप्त किया जा सकता है।
इस धरती पर भौतिक रूप से कोई एक विन्दु ऐसा ढूँढा ही नहीं जा सकता जहाँ से दूसरी सभी वस्तुएं समान दूरी पर हों। फिर इस बहुरंगी समाज में ऐसा ज्योतिपुञ्ज कहाँ मिलेगा जो अपना प्रकाश सबपर समान रूप से डाल सके?
प्लेटो ने ‘फिलॉस्फर किंग’ की परिकल्पना ऐसे ही नहीं की होगी। उन्होंने जब लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते देखा होगा और इसमें पैदा होने वाले अयोग्य नेताओं से भरोसा उठ गया होगा तभी उसने ‘पत्नियों के साम्यवाद’ का प्रस्ताव रखा होगा। यानि ऐ्सी व्यवस्था जिसमें हाइब्रिड के रूप में उत्कृष्ट कोटि की संतति पायी जा सके जिसे अपने माँ-बाप, भाई-बन्धु, नाते रिश्ते, जाति-कुल-गोत्र आदि का पता ही न हो और जिससे वह राज्य पर शासन करते समय इनसे उत्पन्न होने वाले विकारों से दूर रह सके। राजधर्म का पालन कर सके।
आज विज्ञान की तरक्की से उस पावन उद्देश्य की प्राप्ति बिना किसी सामाजिक हलचल के बगैर की जा सकती क्या? ...सोचता हूँ, इस दिशा में विचार करने में हर्ज़ ही क्या है?

सोमवार, 23 मार्च 2009

A For Arunachal Pradesh
- Land of Dawn-Lit Mountains.


- Originally known NEFA(North East Frontier Agency).


- It was a Union Territory from January 20, 1972 to February 19, 1987.


- It was declared a state on February 20, 1987.


- India's largest Buddist monastery at Tawang.


- Separated from Asaam.


- In 1913-14, the British administrator, Sir Henry McMohan, drew up the 550-mile McMohan Line as the border between British India and Tibet during the Simla Conference, as Britain sought to advance its line of control and establish buffer zones around its colony in South Asia.

if ppl have some other fantastic facts, just leave a comment. I'll surely update the post.


To Be continued with new State...............
A For Andra Pradesh

- Andhra means "leader in battle" and Pradesh means "region" or "state".

- Andhra Pradesh is the fourth largest state in India by area and fifth largest by population.

- The majot rivers are Krishna and Godavari.

- It is also considered the Rice bowl of India.

- It was under Mauryan Empire.

- Major crop is Tobacco.

- Specialises in Virginia Tobacco.

- Andhra Pradesh is the home of many religious pilgrim centres. Tirupati, the abode of Lord Venkateswara, has the richest and most visited Hindu temple in India.note :

if ppl have some other fantastic facts, just leave a comment. I'll surely update the post.

To Be continued with new State...............
A For ASSAM
- in 1963 Nagaland was carved out of it
- Jan 21st 1972 Meghalaya was carved out of it.
- Mizoram was also a part of Asaam earlier.
- Mizoram was a Union Territory untill Jan 21st 1972.
- In 1987 Mizoram was declared a state.
- Highest rain fall 178-305 cm.
- Biggest river Brahmaputra.
- Tourist Place : Kaziranga National Park.
- 15.6% of world's and 50% of India's Tea production.
- First state where Oil was struck.
- It was struck at Digboi
- Assam also produces natural gas.
- Assam is the second place in the world (after Titusville in the United States) where petroleum was discovered.
- Asia’s first successful mechanically drilled oil well was drilled in Makum (Assam) way back in 1867
- World's Largest producer of Golden colored "Muga" silk.
To Be continued with new State...............
हैरान हूँ मैं.......

आज मैं ये जानकर बहुत ही हैरान हूँ कि आज हमारा देश, जंहा ५५ प्रतिशत से भी अधिक युवा निवास करते है, और जो हमारे देश के कर्णधार माने जाते है, उसी देश का युवा वर्ग अभी अपने देश से भली भाति परिचित नही है यदि यही स्थिति बनी रही तो इन्हे देश का कर्णधार कहना बेमानी सा होगा
इन स्थितियों से परिचित होने के बाद और देश का नागरिक होने के नाते मैं रोहिताश्वा मिश्रा अपने ब्लॉग के माध्यम से देश के युवा वर्ग को देश के बारे में जानकारी देने का बीड़ा उठाता हूँ, इस अभियान में मैं प्रतिदिन देश के एक राज्य के बारे में जानकारी देने का प्रयास करूँगा आशा है मेरे इस काम में मुझे समय-समय पर आप सभी का सहयोग और मार्गदर्शन मिलता रहेगा

आवश्यक सूचना..........

प्रिय पाठको ,

रोहिताश्व का नमस्कार.....

मैं आज से अपने ब्लॉग को हिंगलिश( हिन्दी+अंग्रेजी) के ब्लॉग में परिवर्तित कर रहा हूँ जैसा कि आज-कल इस भाषा का चलन दिन प्रतिदिन बढता ही जा रहा है अत इसी परिवर्तन को स्वीकार करते हुए मैं रोहिताश्वा कृष्ण मिश्रा अपने ब्लॉग को एक नए कलेवर में प्रस्तुत करने जा जा रहा हूँ आशा करता हूँ कि मुझे पहले कि ही तरह इस काम में भी आपका सदा सहयोग मिलता रहेगा

धन्यवाद !

आपके परिवार का सदस्य............

मंगलवार, 17 मार्च 2009

पूज्य बापू ,
नमस्कार।
आशा है, आप आज भी अपने विश्वास पर अडिग होंगे। ठीक उसी तरह, जैसे चौरा-चौरी में हुई हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के पक्ष में थे और बहुमत से सुभाष चंद्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी आपकी असहमति उनसे कायम थी। सिर्फ अपने विचारों पर अडिग रहने के कारण ही आपने ब्रिटेन सरकार से भगत सिंह को फांसी पर न चढ़ाये जाने की गुजारिश नहीं की थी। आप अपने विचारों पर अंत तक अडिग रहे। सिर्फ इसलिए, क्योंकि आप मानते थे कि अनैतिक तरीके से आदमी एक बार तो जीत सकता है, लेकिन उसके बाद उसका आत्मबल खत्म हो जाता है और लंबी लड़ाई में वह न सिर्फ आपको कमज़ोर करता है, बल्कि सीधे-साधे उन आदमियों का भरोसा भी खो देता है, जो आपके विचारों को अपना संबल मानते हैं।
लेकिन बापू आप गलत थे!
आप जिंदगी भर मद्यनिषेध के पक्ष में आंदोलन चलाते रहे। ज़‍िंदगी भर जुआ के विरोध में रहे। जिंदगी भर कॉरपोरेट कल्चर की जगह लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की वकालत करते रहे। जिंदगी भर अपनी लड़ाई सामने से लड़ते रहे। लेकिन नतीजा क्या हुआ?
एक गोली आयी तो सामने से, लेकिन क्या वह सामने आकर मारी गयी आपको? आपके विचारों से असहमति जता कर मारी गयी आपको गोली? नहीं न! बस कह दिया गया कि आप अप्रासंगिक हैं और मार दी गयी गोली।
छोड़‍िए उन बातों को। वह तो बहुत पुरानी बात है बापू। आजकल की बात करते हैं। इधर क्या हुआ, देखा आपने?
आपके विचारों का वही चश्मा नीलामी पर चढ़ गया। दांव पर लग गया। अब अगर आपके विचारों पर कायम रहते हुए सरकार उसकी नीलामी का इंतज़ार करती रहती, और फिर जो उसे खरीदता - सरकारी तरीके से सरकार उससे डील करती, तो आप समझ रहे हैं न बापू... बस हो गया था!
इसलिए हमने तय किया कि अगर आपके समय के विचारों को बचाना है, तो दांव पर लगी आपकी घड़ी और चश्मा की बोली लगानी होगी। क्योंकि हमलोग ये महत्वपूर्ण बात जान गये हैं कि किसी समय का विचार उस समय की वस्तुओं में ही निहित है। अगर किसी दूसरे ने इसे खरीद लिया तो फिर वह इसका पेटेंट भी कराएगा न! तब तो हम यह भी नहीं कह पाएंगे बापू कि आपकी घड़ी और आपके चश्‍मे पर सिर्फ भारत का अधिकार है।
इसलिए हमने तय किया बापू कि चाहे जो भी हो, हम इस नीलामी में शामिल होंगे। लेकिन सामने से नहीं, मुखौटा लगा कर। यही वजह है कि आपके प्रपौत्र और प्रपौत्री तुषार और तारा गांधी ने एक जमाने के मशहूर क्रिकेटिया दिलीप दोषी पर दांव लगाया, तो शराब किंग विजय माल्या गुमनाम रह कर अपने प्रतिनिधि बेदी के चश्मे से हर समय उस नीलामी में मौजूद रहे और उसे देखते रहे। आपके प्रपौत्रों को इस नीलामी में हार माननी पड़ी। लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है, बापू! जीत तो हमारी ही हुई न! हारे भी तो कॉरपोरेटिया शराब किंग विजय माल्या से ही हारे न! यानी अपने से। अपनों से हारने का क्या गम। और एक आप थे, जो ज़‍िंदगी भर शराबबंदी के लिए आंदोलन चलाते रहे। अब बताइए भला, अगर माल्या जी को आपके आंदोलन की याद आ गयी होती और उन्होंने आपको अपना विरोधी मान लिया होता, तो...! तब तो जान लीजिए बापू, गयी थी ये चश्मा और घड़ी भी। ठीक वैसे ही, जैसे द्रविड़ के हाथ से रॉयल चैलेंजर की कप्तानी निकलने वाली है।
जरा इस पर भी गौर फरमाइए बापू। आप आजादी के बाद कांग्रेस के विघटन के पक्ष में थे। अगर ऐसा हो गया होता, तो क्या होता। तब अंबिका सोनी कहां से आतीं, जो इस बात का दावा ठोंकती कि विजय माल्या सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर उस नीलामी में मौजूद थे। ये अलग बात है कि माल्या जी कह रहे हैं कि वह सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर वहां मौजूद नहीं थे। हो सकता है कि ये उन दोनों के बीच की आपसी समझदारी का मामला हो कि वह बोलेंगी - माल्या जी सरकार के प्रतिनिधि थे और माल्या जी कहेंगे - नहीं। इस तरह श्रेय सरकार को भी मिल जाएगा और चुनाव जैसे महापर्व के मौके पर आदर्श आचार संहिता के मामले में भी आपका चश्मा और घड़ी नहीं फंसेगी। नहीं तो क्या पता, चुनाव आयोग कहीं ये कह दे कि चुनाव की घोषणा के बाद सरकार नीलामी में कैसे गयी। ठीक उसी तरह नीलामी में खरीदी चीज को उसके मूल मालिक को वापस किया जाए, जैसे चुनाव की घोषणा के बाद होने वाले विकास के काम को उल्टा पहिया घुमा कर मूल रूप में लौटाने का वह फरमान जारी करती रही है। लेकिन बापू तमाम बातों के बीच एक बात तो सच है कि आपके सत्य के सिद्धांत का कहीं न कहीं पालन नहीं हुआ। या तो माल्या जी झूठ बोल रहे हैं या सोनी जी। अब आप ही बताइए कि सच के सहारे क्या कोई भी आंदोलन सफल हो सकता है, जैसा कि आप हमेशा कहते रहे हैं। मुझे यकीन है अब आप भी झूठ के महत्व को समझ गये होंगे।
इतना ही नहीं, अभी भी आपके चश्मे और घड़ी के देश में वापस आने पर फच्चर फंसा हुआ है। कहीं ऐसा न हो कि सरकार उन वस्तुओं पर कर राहत न दे और मजबूरन माल्या जी को टीपू की तलवार की तरह इन्हें भी देश के बाहर ही विभिन्न देशों में बने अपने किसी आवास में रखना पड़े। वैसे भी बापू, साढ़े नौ करोड़ की नीलामी के बाद आपको नहीं लगता कि माल्या जी कहां से टैक्स चुकाने के लिए पैसा लाएंगे। ये कोई आइपीएल का टूर्नामेंट तो है नहीं कि इसके लिए उनको इस मंदी में भी कोई प्रायोजक मिल जाएगा।
हां बापू, देखिए न, कुछ लोग अभी भी भितरघात करने पर लगे हैं - जो अपने आप को गांधीवादी कहते हैं - कह रहे हैं कि नीलामी में दांव पर लगी बापू की घड़ी और चश्मा तो हम ले आये, लेकिन कहीं न कहीं उसे लाने में हमलोगों ने उनकी दृष्टि और उनका समयबोध छोड़ दिया। अब बताइए न बापू, इस युग में जहां वस्तुएं ही बहुमूल्य है, वहां समय बोध और दृष्टि जैसी अ-मूर्तन और अ-मूल्य चीज़ के पीछे आज भी वे पड़े हैं।
बापू अब तो मेरी गुजारिश आप से ही है - अपना प्रार्थना गीत, सबको सम्मति दे भगवान गाते हुए अवतरित हों और लोगों को वैसे ही समझाएं, जैसे मुन्ना भाई को समझाया.............

सोमवार, 16 मार्च 2009

भगवान् को भी यदि इस दुनिया में आना है तो उसे रोटी के रूप में आना होगा
कल सिटी ग्रुप के, ये कहने के बाद कि इस वर्ष के पहले दो महीनों में, उसे मुनाफ़ा हुआ है अमरीका ही नहीं पूरे विश्व की अर्थ मंडियों में खुशहाली देखने में आयी जो रेगिस्तान में वर्षा की एक बूंद से कम नहीं है, लेकिन ऐसी परिस्थितियों के जानकारों का कहना है १९२९ की महामंदी के बाद जबकि ज़्यादातर लोगों का ये मानना था कि अब कभी भी ऐसे दिन नहीं देखने पड़ेंगे पर ऐसा नहीं हुआ.इस समय अमरीका के हर बड़े शहर में जिन लोगों की नौकरियां चली गयीं है वो तम्बुओं में पनाह लिए हुएं हैं .हर शहर के फ़ूड बैंक खाली हो गये हैं. इस समय राष्ट्रपति ओबामा का सबसे बड़ा लक्ष्य है अमरीका में इंसानों के बीच एक नया समझौता हो, उसी से कठिनाईयों से बाहर आया जा सकता है, एक साथ मिलकर ही इस मंदी के दौर से हम निकल सकते हैं.ऐसे ही एक समाचार ने अमरीका के करोङों लोगो में तब एक नया उत्साह पैदा किया, जब टेलीविजन पर उन्होंने ये देखा कि डेनवर शहर में एक अच्छे खासे चलते रेस्तंरा ने ये एलान किया कि इस मुश्किल के समय में कोई भी आकर खा सकता हैड उनका मेनू वैसा ही रहेगा जैसा कि हैड हर डिश के दाम भी वही रहेंगे, जिनके पास देने को पैसे नहीं हैं वो खाने के बाद रेस्तंरा के काम में अपनी मदद दे सकते हैं, काम में हाथ बटा सकते हैं. जिनके पास पास हैं वो दे सकते है जो ज़्यादा देकर मदद करना चाहतें हैं वो भी कर सकते हैं लेकिन कोई भी यहां से भूखा नहीं जायेगा. और ये भी कहा गया कि उन्होंने ये कदम गांधी जी के एक वाक्य से प्रेरित होकर उठाया है, गांधी जी ने एक बार कहा था कि लोगों की मुसीबतों को देखते हुए भगवान् को भी यदि इस दुनिया में आना है तो उसे रोटी के रूप में आना होगा.

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

देश में,गांधी मत आना ........
संसद में भी घुसना अब तो नहीं रहा आसान
लालकिले जाओगे तो हो जाएगा अपमान
ऊँची-ऊँची कुर्सी पर भी बैठे हैं बैईमान
नहीं रहा जैसा छोड़ा था तुमने हिंदुस्तान
राजघाट के माली भी मारेंगे तुमको ताना।
अब देश में गांधी, मत आना मत आना, मत आना।
होंठ पे सिगरेट, पेट में दारू हो तो आ जाओ
तन आवारा, मन बाज़ारू हो तो आ जाओ
आदर्शों को टाँग सको तो खूंटी पर टाँगो
लेकर हाथ कटोरा कर्जा गोरों से माँगो
टिकट अगर मिल जाए तो तुम भी चुनाव लड़ जाना।
अब देश में गांधी, मत आना मत आना, मत आना।
अगर दोस्ती करनी हो तो दाउद से करना
मंदिर- मस्जिद के झगड़े में कभी नहीं पड़ना
आरक्षण की, संरक्षण की नीति न अपनाना
चंदे के फंदे को अपने गले न लटकाना
कहीं माधुरी दीक्षित पर तुम भी न फ़िदा हो जाना।
अब देश में गांधी, मत आना, मत आना, मत आना।
.........आँसू
पीड़ा का अनुवाद हैं आँसू
एक मौन संवाद हैं आँसू

दर्द , दर्द बस दर्द ही नहीं
कभी-कभी आह्लाद हैं आँसू

जबसे प्रेम धरा पर आया
तब से ही आबाद हैं आँसू

अब तक दिल में हैं हलचल-सी
मुझको उनके याद हैं आँसू

कभी परिंदे कटे-परों के
और कभी सैयाद हैं आँसू

इनकी भाषा पढ़ना 'प्रकृति'
मुफ़लिस की फ़रियाद हैं आँसू!!!
माँ के चरणों में ......
सुप्रभात ,कैसे हें आप ?
रोजी रोटी की जुगत में ,
संबंधों का ठीकरा बार बार उठाकर जमीन पर रखना पड़ रहा है ,
ऐसे में मुलाक़ात और बात दोनों कम हो रही है ,
मगर इस बात का निरंतर एहसास है कि लौट के बार बार आपके पास ही आना है ,
क्यूंकि आपके पास ही हमारी थाती है और आपके पास ही हमारी ठौर
स्वीकार करें मेरा अभिवादन माँ को लिखी इस कविता से ,
जिसे मैं हर पल याद करता हूँ
आसमान में बादल नहीं
चाँद खिला है माँ
बादल बरसते हें चाँद नहीं
हम फिर छले गए इस आसमान से
पीछे की पहाडी / कब हरी होगी माँ
कब आयेंगे पश्चिम के मेघ
नाले चल रहे होंगे
बादल कहीं नजर नहीं आते
मिटटी !
तुम्हारे चेहरे की भांति /सुखी हुई
और आँखें टकटकी लगाये देखती हें
निष्ठुर आसमान की और
कभी सूरज/कभी चाँद
मुँह चिढाते हैं हम बौछारों के मौसम में
धुप से बचाव के छाते लगते हैं ..........
पत्रकार .......
लोकतंत्र का इक,
अभिन्न अंग है, पत्रकार।
नाम कलम से, काम कलम से,
है ,युग निर्माता पत्रकार।
हिंसा और आतंक मिटाने की,
चेष्ठा है पत्रकार।
घटनाओं का आंखों देखा,
लेख है, लिखता पत्रकार।
जन-जन तक ख़बरें पहुंचाकर,
दायित्व निभाता पत्रकार।
दिखता नही सुबह का सूरज,
फिर कलम पकड़ता पत्रकार।
अविलम्बित ये मानव ऐसा ,
बेबाक टिप्पणी पत्रकार।
ये भी एक विडम्बना है,
आतंकित है पत्रकार।
हो जाए चाहे जो कुछ भी,
पर निडर व्यक्ति है पत्रकार।
समय अनिश्चित,
कार्य अनिश्चित,
पर निश्चित है, पत्रकार।
एक सिपाही बंदूको,
से एक सिपाही कमलकार,
लोकतंत्र का पत्रकार,
ये लोकतंत्र का पत्रकार।
गाँधी हुए नीलाम........
गांधीजी की चीजों की नीलामी पूरी हो गयी है. गांधीजी की चीजों को भारतीय कारोबारी विजय मल्ल्या ने तक़रीबन १.८ मिलियन डॉलर यानि ८ करोड़ से ज्यादा रुपयों में खरीद लिया है. श्री मल्ल्या इन सारी चीजों को भारत सरकार के हाथ सौंप देंगे. कई दिनों से इस नीलामी को लेकर विवाद जारी था, इस नीलामी में गांधीजी की कई निजी चीजें शामिल थी। न्यूयार्क में हुई नीलामी में गांधीजी की पाकेट घङी, चमङे की चप्पल, उनका चश्मा, पीतल की थाली और एक कटोरी को खरीदने के लिए लोगोने बोली लगायी. इस समय विजय मल्ल्या की ओर से टोनी बेदी ने इन चीजों पर बोली लगायी और अंत में इन्हें जीत लिया. इन चीजों को खरीदने के लिए १२ लोगों ने फ़ोन पर और १२ लोगों ने इन्टरनेट के ज़रिये बोली लगायी. और कई लोग इन चीजों पर बोली लगाने के लिए वहां मौजूद थे. इस नीलामी के लिए दुसरे नंबर की बोली इंग्लैंड से लगी थी, ये बोली १.७५ मिलियन डॉलर के करीब थी, इस बोली को लगाने वाली पार्टी ने इन्टरनेट के जरिये इस नीलामी में शामिल हुई थी. नीलामीघर एंटी कोरम को उम्मीद थी कि इन चीजों पर ३०,००० डालर यानि तक़रीबन १५ लाख रुपयों की बोली लगेगी लेकिन अंत में गांधीजी की इन चीजों की कीमत कहीं ज्यादा निकली. इन चीजों को वापस लाने के लिए भारत सरकार और संत सिंह चटवाल जैसे भारतीय अमेरिकी कारोबरियोने भी दिलचस्पी दिखाई थी.भारत सरकार द्वारा इस नीलामी को रोकने के सारे प्रयास नाकामयाब रहे हैं. इन वस्तुओं के मालिक जेम्स ओटिस ने कहा था कि अगर भारत सरकार बजट का बड़ा हिस्सा गरीबों के लिए खर्च करने का वचन दे तो वह इस नीलामी को रोक देंगे. ओटिस ये भी चाह रहे थे कि गांधीजी की वस्तुओं की ऐसी चलती फिरती प्रदर्शनी हो जिसे दुनिया भर के लोग देख सकें और गांधीजी के विचारों से परिचित हो सके. लेकिन जेम्स ओटिस और सरकार के बीच कोई समझौता नहीं हो पाया और इन चीजों की नीलामी तय हो गयी.हांलाकि इस सब के बावजूद कुछ सवाल अभी भी बने हुये हैं क्या इस नीलामी को भारत अब कानूनी तौर पर मंजूरी देगा ? क्या विजय मल्ल्या इन चीजों को भारत सरकार के हवाले करेंगे? क्योंकि भारत के कोर्ट ने इस नीलामी को ग़ैरकानूनी करार दिया था, वहीं इन चीजों को नीलामी घर को देने वाले जेम्स ओटिस ने कहा है कि इस पूरे मामले को लेकर वह २३ दिन के लिए उपवास रखेंगे. .

बुधवार, 4 मार्च 2009

आर्थिक संकट के दौर में दरियादिली की मिसाल
सदियों से अमरीका आप्रवासियों का ड्रीमलैंड रहा है, उसका सबसे बड़ा आकर्षण है, यहां की आर्थिक खुशहाली और हरएक को प्राप्त ऐसे सुअवसर कि वो जिस बुलंदी पर पहुंचना चाहता है उसके लिए अपनी किस्मत आज़मा सकता है.सरकार इसमें कोई रुकावट नहीं बनती, लेकिन कुछ करने और पाने की भावना उनमें कड़ी होड़ पैदा कर देती है, जिससे इंसान का एक दूसरे के साथ रिश्ता कमज़ोर पड़ जाता है.दूसरी और ये भी सच है कि मुश्किल के दौर में ही लोगों की इंसानियत की परख होती है. अमरीका में जब कि लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं हैं, लोगों ने अपने घर खो दिए हैं, बहुत से लोग कम खाकर गुज़ारा कर रहें हैं, ऐसे में भी बहुत से अमरीकियों की दरियादिली में कोई कमी नहीं आयी है. ऐसी ही एक मिसाल हाल में ही देखने में आई कि ऐसे कठिन समय में एक महिला की किसी ने कैसे मदद की.अपने दो बच्चों के साथ एक कस्बे से बड़े शहर में आने पर उसे छोटा- मोटा काम तो मिल गया पर गुज़ारा बड़ी मुश्किल से कर रही थी कि वो काम भी छूट गया. अपनी आख़री तनखाह के पैसे लेकर वो खाने पीने का सामान लेने के लिए उसी परिचित स्टोर में गई जहां वो अक्सर जाया करती थी पर उस दिन उसके दिमाग में बराबर ये घूम रहा था, इन पैसों से कुछ दिन तो गुज़र जायेंगे, लेकिन आँखे और उसकी आवाज़ उसका साथ नहीं दे रहीं थी. और जब भी कोई उससे हाल चाल पूछता, बरबस उसके मुहं पर हकीकत आ जाती कि उसकी नौकरी चली गयी है. बातें करते करते जब वो सामान के साथ काउंटर पर पहुंची और हिसाब होने के बाद उसने पैसे देने के लिए अपना हाथ बढाया, उसे सुनाई दिया कि आपके पैसे तो चुका दिये गये हैं, महिला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, एक हाथ इशारा कर रहा था वो दरवाज़े के बाहर जा रहे व्यक्ति ने आपकी ग्रोसरी के पैसे अपना हिसाब चुकाते समय ही दे दिये थे. उसके मुहं से निकला कि बुरे समय में भी कुछ लोगों में इंसानियत कायम है....
कबीरा चला कैलिफोर्निया......
मई के महीने में कैलिफोर्निया के कबीर प्रेमी, प्रहलाद सिंह टिपनया के सुरों में स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के मंच पर कबीर बानी सुनेंगे. कबीर पर बनी चार फिल्में कैलिफोर्निया के स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में कबीर उत्सव के दौरान दिखाई जा रहीं हैं और जिस कवि की रचनाएँ भारत में सदियों से गाई जा रहीं हैं, अब उनकी गूँज कैलिफोर्निया में भी लोगों को लुभा रही हैं. रूढ़िवाद और कट्टरपंथ का खुलकर विरोध करने वाले संत कबीर ६०० साल पहले कह गए कि परमात्मा न कैलाश पर हैं न काबा में, न पुराण में, न कुरान में. कई कबीर प्रेमियों का मानना है कि कबीर के दोहे और कवितायें आज की दुनिया पर भी उतनी ही लागू होती हैं जितनी पहले थी.चलो हमारे देस नाम की इस फ़िल्म में निर्देशिका शबनम विरमानी ने देखा की मालवा के दलित समाज के प्रहलाद सिंह टिपनया उत्तर भारत में कबीर की आवाज़ लोगों तक पहुंचा रहे हैं. स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर लिंडा हेस भी कबीर में लीन हैं और उनका भारत से प्रेम काफ़ी पुराना है.कबीर की खोज में निकली फ़िल्म की निर्देशिका विरमानी ने लिंडा हेस को भी इस यात्रा की एक अहम् कड़ी माना है. उनके वाराणसी में गुज़ारे हुए दिन और उनका स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में आज काम, दोनों ही कबीर से जुड़े हैं.

मंगलवार, 3 मार्च 2009

सावधान......
क्या आप सोशल नेटवर्किन्ग साइट को अक्सर खंगालते हैं। अगर हां, तो आपके लिए बुरी खबर है। एक साइंस जर्नल में छपीरिपोर्ट के मुताबिक, यह आदत न सिर्फ आपकी सेहत के लिए खतरनाक है, बल्कि कैंसर जैसी घातक बीमारी की कगार पर भी धकेल सकती है। बायॉलजिस्ट नाम के जर्नल में साइकॉलजिस्ट एरिक सिगमन बताते हैं, लोगों से मिलने-जुलने की बजाय ईमेल भेजने की आदत के इंसान पर सीरियस बायॉलजिकल इफेक्ट पड़ते हैं। डेली मेल ने सिगमन के हवाले से बताया कि बढ़ते अकेलेपन से हमारे जीन के काम करने का ढंग भी बदल जाता है। इम्यून सिस्टम, हॉर्मोन लेवल और आर्टरीज का फंक्शन भी सुस्त पड़ जाता है। इससे इंसान का दिमागी कामकाज भी लड़खड़ा सकता है। जिसका नतीजा कैंसर, स्ट्रोक, हार्ट डिजीज और डिमेंशिया का बढ़ता रिस्क हो सकता है।सोशल नेटवर्किन्ग साइटें लोगों को साथ जोड़े रखने के मकसद से डिजाइन की गई हैं, पर इनसे लोग अकेलेपन का शिकार होते जा रहे हैं। रिसर्च बताती है कि दूसरों से आमने-सामने बातचीत करने में बीतने वाले घंटों का आंकड़ा साल 1987 की तुलना में काफी गिर चुका है। ऐसा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल से हुआ है।
क्रिकेटवाद ........
"भारत में होती है क्रिकेट की पूजा,
क्रिकेट का खेल, अपने आप में ही है दूजा।
हमारे जाबाज़ जब - जब खेलते आयें हैं,
विपक्षी टीम के हा छक्के छुड़ाते आयें हैं।
अपने इस इतहास पर हम अमल करते आयें हैं,
इंग्लैंड की टीम को एक बार फिर भंगी बनाकर आयें हैं।
देश के खातिर वीर जवान प्राणों की सलामी देते हैं,
हर बात का मुहतोड़ जवाब देने का,
प्रण हम लेते हैं।जिस तरह हमारे खिलाडी,
मैदान के चरों ओर रनों को बरसाते हैं,
विपक्षी टीम को १-१ रनों को तरसाते हैं,
उसी तरह हमें भी इन आतंकवादिओं को तरसाना है,
हमारी वाइड बाल पर इन्हें रन मिले,
या फिर ye बम गोलों के छक्के चौके लगाएं,
इससे पहले इन्हें clean बोल्ड कर दिखाना है.."
ये क्या हो गया है......
"हर ख़ुशी हैं लोगों के दामन मे,
पर एक हंसी के लिए वक़्त नहीं
दिन रात दौड़ती दुनिया मे
ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नहीं
माँ की लोरी का एहसास तो हैं
पर माँ को माँ कहने का वक़्त नहीं
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके हैं
अब उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं
सारे नाम मोबाइल मे हैं
पर दोस्ती के लिए वक़्त नहीं
गैरो की क्या बात करे
जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं
आँखों मैं हैं नींद बड़ी पर सोने का वक़्त नहीं
दिल हैं ग़मों से भरा हुआ
पर रोने का भी वक़्त नहीं
पैसे की दौड़ मैं ऐसे दौडे
की थकने का भी वक़्त नहीं
पराये एहसासों की क्या क़द्र करे
जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नहीं
तू ही बता ऐ ज़िन्दगी
इस ज़िन्दगी का क्या होगा की
हर पल मरने वालों को
जीने के लिए भी वक़्त नहीं.....
"I luv these beautiful lines...."
मुश्किलों मे भाग जाना आसान होता हैं
हर पहलु ज़िन्दगी का इम्तिहान होता हैं
डरने वालों को कुछ मिलता नहीं ज़िन्दगी मे
और लड़ने वालों के कदमो मे जहाँ होता है....
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती....
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
अगर रख सको तो...
अगर रख सको तो एक निशानी हूँ मैं,
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मैं ,
रोक पाए न जिसको ये सारी दुनिया,
वोह एक बूँद आँख का पानी हूँ मैं.....
सबको प्यार देने की आदत है हमें,
अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे,
कितना भी गहरा जख्म दे कोई,
उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें...
इस अजनबी दुनिया में अकेला ख्वाब हूँ मैं,
सवालो से खफा छोटा सा जवाब हूँ मैं,
जो समझ न सके मुझे,
उनके लिए "कौन"जो समझ गए उनके लिए खुली किताब हूँ मैं,
आँख से देखोगे तो खुश पाओगे,
दिल से पूछोगे तो दर्द का सैलाब हूँ मैं,,,,,
"अगर रख सको तो निशानी, खो दो तो सिर्फ,,,,
आर्थिक संकट और अमेरिकी राष्ट्रपति
इन दिनों, यदि हमारे चारों ओर कोई शब्द सुनाई देतें है वो हैं आर्थिक संकट और उससे उबरने के लिए सरकार का प्रोत्साहन कार्यक्रम, ऐसा लगता है इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है.वर्ष १९२९ में शेयर मार्केट गिरने के बाद अमरीका ही नहीं पूरी दुनिया में मंदी का दौर छा गया था. बैंक, व्यापार, सभी बडी-बडी संस्थाऐ इसकी गिरिफ़्त में थी. लाखों लोग बेरोज़गार हो गए थे. आर्थिक मंदी के इस दौर में फ्रैंकलिन रोज़ावेल्ट अमरीका के राष्ट्रपति बने. उन्होंने फिर से सरकार और जनता के बीच एक नया समझौता करवाया जिसका नाम था "न्यू डील ". उसके तहत सरकार ने स्वयं नई नौकरियां दीं, सोशल सिक्यूरिटी, मैडीकेयर,फ़ूड स्टैम्प जैसे कार्यक्रम शुरू किए गये. ये ऐसे प्रयास थे जिन्होंने सरकार और जनता के बीच एक मज़बूत दीवार का सा काम किया. राष्ट्रपति रोज़वेल्ट का ये मानना था कि सरकार का ये फ़र्ज़ है ऐसे मुशकिल के दौर में वो जनता की मदद करे.हुआ भी ये कि उनकी नई योजना अमरीका की अर्थव्यवस्था में एक नई सुबह लेकर आयी.लेकिन १९८० के दशक में राष्ट्रपति रेगन की विचारधारा इससे बिल्कुल हटकर थी उनका मानना था हर इंसान को अपनी ज़िन्दगीअपने प्रयास अपने बल पर जीनी चाहिए, सरकार से सिर्फ़ उसे एक ही आशा रखनी चाहिए और वो है सुरक्षा की कि वो उसकी सुरक्षा का ख्याल रखेगी. और हुआ भी ये कि उस समय तक जारी सामाजिक सहायता के बहुत से कार्यक्रम बंद कर दिए गये.राष्ट्रपति रेगन, माग्रेट थेचेर की तरह मंङी अर्थव्यवस्था में विश्वास करते थे दोनों का ही मानना था व्यापार को आगे बढ़ने में किसी तरह की कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए तभी देश में खुशहाली आती है.लेकिन अब जो मंदी, वर्ष २००८ में शुरू हुई है उसका प्रभाव एक बार फिर पूरे विश्व में छाया हुआ है करोड़ों लोग, दिन पर दिन बेरोज़गारी और मजबूरियों के संकट से घिरा महसूस कर रहें है. ऐसे मुशकिल दौर में अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने, राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रोज़वेल्ट की ही तरह सरकार और जनता के बीच एक नया समझौता करवाने का प्रयास किया है. सरकारी नौकरियां,नए रोज़गार, जनता के लिए आर्थिक प्रोत्साहाहन योजनाये को अंजाम देने का कठिन मार्ग इसलिए अपनाया है ताकि जनता ने जिस सरकार को चुना है वो आम लोगों की मदद कर सके।
क्या रहमान का ऑस्कर जीतना भारतीय फ़िल्म उद्योग के लिए फायदेमंद साबित होगा ?
ए आर रहमान की जीत की खुशी हम सभी को है खास कर इसलिए भी कि रहमान के संगीत को दुनिया भर में उतना ही पसंद किया गया जितना कि भारत में. अमेरिका में भी स्लम डॉग फ़िल्म के संगीत और गानों को बेहद सराहा गया. हिन्दी न समझने वाले लोगों में भी जय हो गाना उतना ही लोकप्रिय हो गया है जितना कि हिन्दी समझने वालों में. रहमान का ऑस्कर जीतना सही मायने में ऐतिहासिक है क्यों कि पिछले कुछ सालों में लगान जैसी फ़िल्म अन्तिम दौर तक पहुंच कर भी ऑस्कर जीतने में नाकामयाब नहीं रही थी. रहमान के पहले कौस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथाय्या को गाँधी फ़िल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला था तो महान निर्देशक सत्यजीत राय को लाइफ टाइम ऑस्कर पुरस्कार से नवाजा गया था. लेकिन अब जब बॉलीवुड और हॉलीवुड के करीब आने की बात हो रही है तो रहमान को फ़िल्म जगत के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा जाना हम सभी के लिए खुशी की बात है. कुछ जानकारों ने स्लम डॉग के सही मायने में भारतीय फ़िल्म न होने की आलोचना की है, तो कुछ समझते है कि बॉलीवुड को और कहीं पुरस्कार पाने की जरूरत नही है. लेकिन कोई चाहे कुछ भी कहे एक बात तो तय है कि रहमान ने अमेरिका ही नही पूरे विश्व में भारत का नाम और ऊंचा कर दिया है. आम तौर पर बॉलीवुड संगीत से दूर रहने वाले अमेरिकी भी इन दिनों जय हो की धुन गुनगुना रहें हैं. क्या आप को लगता है कि रहमान की इस जीत का फायदा बॉलीवुड को होगा? क्या भविष्य में हम बॉलीवुड और हॉलीवुड द्वारा एक साथ मिलकर बनाई हुई फिल्मों को देखेंगे? क्या आप को लगता है कि भविष्य में और भी भारतीय कलाकार ऑस्कर पुरस्कार को जीत पायेंगे? रहमान ने ये तो सिद्ध कर दिया है की मेहनत और लगन के जोर पर नामुमकिन भी मुमकिन है और इसके लिए आप को हॉलीवुड नही आना पड़ता आप अपने देश में ही अच्छा काम करके ये सब सम्भव है. अब भारतीय फ़िल्म प्रेमी उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले समय में अन्य कोई भारतीय फ़िल्म भी सबसे बेहतरीन फ़िल्म के ऑस्कर को जीत ले....
मत भागो....
शब्दों को पिरोकर हेड़लाईन,
हेड़लाईन को तोड़कर एसटीडी वीओ,
उसमें थोड़ा जोड़कर पैकेज तैयार करने वाले मानूष
ये जिन्दगी बेहद कठिन है...
क्यूं जिये जा रहे हो... इस निरस जिन्दगी को...
उतार फेकों शब्दों के जाल को...
मुक्त हो जाओ एसटीडी वीओ और पैकेज के महाजाल से...
छोड़ दो हेडलाईन का टेंशन...
दूर रहो रन आर्डर के ख़ौफ से...
बदल डालो खुद को...
कर डालो संहार उन सबका ...
जो मार रही तुम्हारी ईच्छाओं को
बन जाओ महापुरुष...
और अपनी दूरदर्शी निगाहें दौड़ाओ...
और अपनी निरस जिन्दगी में प्रेम की गंगा बहाओ...
नहीं रखा कुछ इस समंदर के खारे पानी में...
नमक को निकालकर फेंक दो...
मत भागो एसटीडी वीओ और पैकेज के पीछे
आराम करो...
छुट्टी लो...
मगर इस मायावी नगरी से दूर रहो...
बापू के बन्दर.....
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
सर्वोदय के नटवरलालफैला दुनिया भर में जालअभी जियेंगे ये सौ सालढाई घर घोडे की चाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल......

गैरों में कहाँ दम था.......
गैरों में कहाँ दम था.
मेरी हड्डी वहाँ टूटी,
जहाँ हॉस्पिटल बन्द था.
मुझे जिस एम्बुलेन्स में डाला,
उसका पेट्रोल ख़त्म था.

मुझे रिक्शे में इसलिए बैठाया,
क्योंकि उसका किराया कम था.

मुझे डॉक्टरों ने उठाया,

नर्सों में कहाँ दम था.

मुझे जिस बेड पर लेटाया,

उसके नीचे बम था.

मुझे तो बम से उड़ाया,

गोली में कहाँ दम था.

और मुझे सड़क में दफनाया,

क्योंकि कब्रिस्तान में फंक्शन था