मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

पिक्चर ऑफ़ थे डे
बुलंदी पे भारत देश और उसका झंडा....
सलाम भारत!!!

Do we really deserve to be INDIANS ?????
श्री गणेशाय नमा
कोई भी काम शुरू करने से पहले इनका नाम लेना तो जरुरी है न , सो पहले इनका नाम ले लूं
दोस्तों कुछ समय के लिए मैं ब्लॉग की दुनिया से थोडा दूर हो गया था
लेकिन एक बार फिर मैं ब्लॉग के माध्यम से अपने विचारो की बूंदों को आपके समंदर जैसे विशाल मन में गिरना चाहता हूँ
अबकी बार ये विचार अभिव्यक्ति के दोनों माध्यमों में प्रेषित होंगे
आशा है आप पहले की ही तरह मेरा साथ देंगे

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

बचपन का सपना और 20 रुपये
कुछ सपने सबसे प्यारे और सबसे नेक लगते हैं ....बिल्कुल ओस की बूंदों की तरह ....नन्ही मुस्कान की तरह ....माँ के दुलार की तरह ....पहले प्यार की तरह ....और मुझे भी बहुत प्यारा था वो सपना ....सच बहुत प्यारा ...एक दम दिल के करीब ...कि जो सच हो जाये तो समझो कि दिल का मयूर नाचने लग जाए......

मैं भी कितना पागल था अजीब अजीब से सपने देखने लग जाता था ...कि अगर ऐसा हो जाए तो कैसा हो ....अगर मैं ये कर सकूँ ......तो आह मज़ा आ जाये ..... ऐसे ही मन में एक प्यारी सी ख्वाहिश पैदा हो गयी ....माउथ आर्गन बजाने की .....कि काश मेरे पास माउथ आर्गन हो तो मैं भी बजाना सीखूं .....कितना अच्छा लगेगा ...जब मैं माउथ आर्गन बजाऊंगा .....बस यही सोचते हुए कभी कभी तो दिल घंटो ख़ुशी से झूमता रहता ....

बस एक बार किसी फिल्म में देख लिए किसी को बजाते हुए ....तो हो गए लट्टू ...कि अरे वाह जब वो बजा सकता है तो हम क्यों नहीं .....और ये बात हमारा बहुत खूब जानता था ...बचपन ....बड़ा ही अजीब होता है ...कैसी कैसी प्यारी प्यारी ख्वाहिशें पैदा कर लेते हैं हम ....मुझे याद है कि बचपन में मेरा भाई बहुत जिद्दी हुआ करता था ...अगर किसी बात की ठान ले तो मजाल है कि उसे पूरा किये बिना मान जाये ...फिर तो चाहे उसको मार लो पीट लो ...कुछ भी कर लो ...पर वो मानने वाला नहीं ....

मुझे अच्छी तरह याद है कि जब महीने के अंतिम दिन हुआ करते थे ...तो कैसे हाथों को रोक कर मम्मी घर का खर्चा चलाती थीं ....आखिर एक मध्यम वर्गीय परिवार के हालत महीने के अंत में ऐसे ही हो जाते हैं ......एक बार जब स्कूल में मैडम ने रंग लाने के लिए कहा था ...कि अगर अगले रोज़ जो बच्चे रंग नहीं लाये तो ...उसे सजा मिलेगी .....

मेरा भाई कैसे जिद पकड़ कर बैठ गया था ...कि अगर स्कूल जायेगा तो रंग लेकर जायेगा ...नहीं तो जायेगा नहीं ....उस दिन घर में पैसे नहीं थे ...शायद महीने का अंतिम दिन होगा ....लाख समझाया कि अगले दिन ले देंगे ...पर नहीं जी ...हमारे भाई नहीं माने ....बात इतनी बढ़ गयी कि पिताजी ने गुस्से में आकर उसकी मार लगा दी ....तब भी वो स्कूल जाने के लिए राजी न हुआ ...तब कहीं जाकर माँ ने अपने संदूक में खोज बीन कर चन्द पड़े हुए सिक्के जमा कर ..उसके रंगों के पैसों का बंदोबस्त किया था .....और मैं बिना रंगों के गया था ....ऐसा था मेरा जिद्दी भाई ....पर एक बार की बात है ...जब राम नवमी के दिन थे ....माँ ने हम दोनों को पास के ही भैया के साथ झाँकियाँ देखने भेज दिया था ...माँ ने दोनों भाइयों के लिए कोई 20 रुपये दिए होंगे .....तब मैंने वो अपने भाई को ही रखने के लिए दे दिए थे ....जब हम वहाँ पहुँचे तो वो अपने दोस्तों के साथ मस्त हो गया ...और मैं उस में रम गया जहाँ लोग अपने अभिनय से लोगों का दिल बहला रहे थे ....मुफ्त में ...शायद कुछ ऐसा रहा हो ....सब कुछ देखने के बाद हम घर वापस आ गए ....अगले दो रोज़ बाद को मेरा जन्म दिन था .... घर पर जन्म दिन मनाया गया ....और जब केक काटने के बाद सभी लोग कुछ न कुछ गिफ्ट दे रहे थे ...तब मेरे भाई ने चमकीली पन्नी में लिपटा हुआ एक तौहफा दिया .....और कहा भैया अभी नहीं खोलना ...बाद में खोलना ....मैंने कहा ठीक है ...पर ये तुम लाये कहाँ से .....वो बस मुस्कुरा भर रह गया .....जब सब कुछ ख़त्म हो गया और सब के जाने के बाद मैंने वो खोला तो उसे देख के मैं उछल पड़ा ...अरे ये तो माउथ आर्गन है .....कहाँ से ...मतलब कैसे लाये तुम ....किसने दिलाया .....मैंने अपने भाई को बोला .....वो बोला उस दिन मैंने पूरे 20 रुपये का यही खरीद लिया था ....उस पल मुझे लगा ...कि हाय ...मेरा जिद्दी भाई भी इस कदर सोच सकता है ...बेचारे ने ना कुछ खाया ...और न ही अपने लिए कुछ लिया ...पूरे के पूरे पैसों से ...अपने इस बड़े भाई के सपने को पूरा करने के लिए सारे के सारे पैसे इसी में खर्च कर दिए ....उस पल मैं बयां नहीं कर सकता कि मुझे कैसा महसूस हो रहा था ...मैंने अपने भाई को बाहों में भर लिया .....सच वो पल भुलाये नहीं भूलता ....मेरा वो जिद्दी भाई ...मेरा वो प्यारा भाई ....अपनी सभी जिद ताक़ पर रख कर मेरे लिए माउथ आर्गन खरीद लाया .....सच उस पल ऐसा लगा कि ...मेरा सपना कुछ भी नहीं था ... ..उस ख़ुशी के आगे जो मेरे भाई ने उस पल मुझे दी थी .....हाँ मुझे याद है कि मैं माउथ आर्गन तो ज्यादा कुछ खास नहीं सीख सका ....लेकिन हाँ सीटी बजाना इतना अच्छा सीखा ....कि भाई क्या ...सब लोग कहते कि "दिल तो पागल है " का शाहरुख़ खान भी मेरे आगे पानी भरे आकर और कहे कि भाई मुझे ऎसी सीटी बजाना सिखा दो .....सच में बहुत सालों तक सीटी बजायी ....पूरी धुन के साथ ...हर गाने पर .....आज भी जब कभी धुन में होता हूँ तो सीटी बजाने लगता हूँ फिर वक़्त ने धीरे धीरे मेरे भाई को जिद्दी ना रहने दिया ...अब वो भी समझने लगा था कि ...एक मध्यम वर्गीय परिवार का गुजारा कैसे चलता है .....जिंदगी कैसे जी जाती है ...... हाँ ये जिंदगी ही तो है ...जो इंसान को सब कुछ सिखा देती है .....पर एक बात जो मुझे जिस पल भी याद आ जाती है ...कि किस कदर मेरे भाई ने उस बचपन में भी मेरी चाहत के बारे में सोचा .....सच बहुत प्यार आ जाता है ...मुझे अपने भाई पर .....मेरा वो प्यारा सा जिद्दी सा भाई

ड्रामा - ऐ - IPL!
आजकल IPL काफ़ी शोरगुल मचा रहा है। इतना शोर कि उसकी गूँज सदन में भी सुनाई दे रही है। अमरीकन नचइये के भड़कीले कपडों को लेकर बवाल मचा हुआ है। आख़िर वह कैसे इतने छुटले कपड़े पहन कर नाच सकती हैं? यह तो अन्याय है - अब हमारे बौलीवुड की अभिनेत्रियों का क्या होगा? आख़िर कुछ दिन पहले ही करीना ने टशन में आकर इतना "वेट लूज" किया है! और ये फिरंगी लौंडियाँ बीच में आकर हमारी राखी सावन्तों के पेट पे लात मार रही हैं!और ये क्या - लो जी श्रीसंत तो रो पड़े! आख़िर हुआ क्या ? भज्जी ने चमाट रसीद कर दिखा दिया कि पंजाब की टीम में न होने से कुछ नही होता - असली पंजाब के पुत्तर वही हैं। अब या तो श्रीसंत ने भी मर्द बनकर भज्जी को चम्टिया देना था या फ़िर चुपचाप सहन कर लेना चाहिए था। मगर पहले तो १०,००० लोगों के सामने प्रसाद पाया और फ़िर करोड़ों के सामने रो पड़े। अब हिंदुस्तान की टीम ऑस्ट्रेलिया जायेगी तो क्या कहेंगे वह लोग ?
वैसे विश्वसनीय सूत्रों का यह कहना है कि प्रीटी जिंटा से "जप्पी" न प्राप्त होने की वजह से वह रो पड़े। अब ये हाल अपनी "यंगिस्तान" की जेनरेशन के आइकन का है तो फ़िर हो गया कल्याण !खैर, मैं तहे दिल से आभारी हूँ IPL का - Is मनोरंजन भरे ड्रामे के लिए! अगला "मैच" भज्जी और शोएब के बीच में होना चाहिए। वैसे साइमंड्स भी इशांत शर्मा के साथ बौक्सिंग मैच का इरादा जता चुके हैं - तो हो जाए SETMAX पे इन्टरटेन्मेन्ट अनलिमिटेड!
नेता के टाइप - रेडीमेड, मेड और थोपित
शेक्सपिअर का कथन है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग अपने कर्म से महान होते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है ।
ऐसे ही भारतीय राजनीति में नेता भी 3 तरह के होते हैं । यद्यपि मैनें सुन रखा है कि आजादी के बाद देश में कोई नेता ही नहीं पैदा हुआ । लेकिन मुझे इस बात पर जरा भी यकीन नहीं है । इतने सारे नेता क्या आसमान से टपके हैं ।
जन्म से नेता - ऐसे नेताओं की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, राजनैतिक पार्टियां अपने अन्दर राजवंशों की तरह बर्ताव करने लगी हैं । पहले युवराज या राजकुमारी शिक्षा ग्रहण कर आने के बाद उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाते थे । ऐसे ही अब राजनीतिक पार्टी के आकाओं के सुपुत्र-सुपुत्रियों का भी भविष्य में पार्टी की बागडोर पकडना सुनिश्चित होता है । पार्टी पर शासन करने के लिये राजशाही खून जरूरी है। जिन्दगी भर पार्टी के लिये मरने खपने वाले वरिश्ठ नेता और कार्यकर्ता उनकी सेवा में लग जाते हैं । यह सोचकर की राजा तो राजवन्श का ही होगा वफ़ादार बने रहते हैं । जन्म से नेता होने के लिये राजपुत्र होना जरूरी नहीं है, बल्कि राजवन्श से किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी पैदाइशी नेता बनने की आवश्यक योग्यतायें हैं।
दूसरे तरह के नेता वे होते हैं जो पार्टी कार्यकर्ता से शुरु होकर क्रमशः ऊपर कि तरफ़ सरकते हैं । राजनीति का वह दौर अब समाप्त हो चुका है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों में भी गरीब घर से आने वाले प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गये थे । अभी तो फ़िलहाल ऐसी घटना घटने की कोई सम्भावना नहीं दिखती ।घिस-घिसकर ऊपर जाने वाले नेता अधबीचे तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाते हैं । ऐसे नेताओं का कद हमेशा जन्मना नेताओं से दोयम रहता है। बहुत जोर मारा तो अलग पार्टी बनाकर उसकी अगुआई करते हुए पुरानी पर्टी के नेताओं के सिद्धांत को कायम रखते हैं । या कोई सस्ते हथकन्डे अपनाकर एक दिन में राष्ट्रीय पहचान बना लेते हैं ।
तीसरे तरह के नेता वे होते हैं जिन पर नेतापन थोपा जाता है । इनको कम्पनी के ब्रान्ड अम्बेसडर समझिये । जैसे कोई कार बेचनी है तो किसी मॉडल को उसकी बगल में खडा कर दो । इस तरह के व्यक्ति वे होते हैं जिन्हे "सितारे" कहा जाता है, दूर से अच्छी लगने वाली मनोरंजक वस्तुयें । फ़िल्मी सितारे, मॉडल, क्रिकेट के खिलाडी, बडे-बडे उद्योगपति होते हैं । राजनैतिक दल इनकी लोकप्रियता को भीड इकट्ठी करने के लिये इस्तेमाल करते हैं । इस तरह की नेतागिरी लोकप्रियता की जमा पूंजी को राजनीति में इन्वेस्ट करने की होशियार कोशिश है । प्रायोजित नेता राजनीति में अपने पुराने धन्धे की वजह से ही जाने जाते हैं । यदि काम से रिटायर होकर आते हैं, तो ग्लैमर की एक दुनिया से निकलकर दूसरे में प्रवेश हुआ और एकाध बार सांसद वगैरह हो गये तो पैसा वसूल । यदि अभी काम कर रहे हैं (यद्यपि उधर भी मन्दी चल रही होगी या लोग रिटायर्मेन्ट की मांग करने लगे होंगे इसीलिये इधर रुख किये हैं ) तो चुनाव के बाद फ़िर अपने सूटिंग व्गैरह में व्यस्त हो जाना है भारतीय मानस चमत्कारों से चौंधियाना चाहता है दिमाग से कम भावुकता से ज्यादा काम लेता है, नहीं तो ऐन चुनाव के वक्त आकर पार्टी का सदस्य बनकर चुनाव क्षेत्र में आने वालों और उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की जुर्रत कराने वालों को जनता को रगेद देना चाहिए चाहे वह किसी भी पार्टी का हो

रविवार, 29 मार्च 2009

खेलों देशभक्ति का विकेंद्रीकरण
ज़रा इस सवाल का जल्दी से बिना ज़्यादा सोचे जवाब दें। भारत का राष्ट्रीय खेल कौन सा है?अगर आप सोच में पड़ गये या फिर आपका जवाब क्रिकेट, टेनिस जैसा कुछ था तो जनाब मेरी चिंता वाजिब है। हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है। पर पिछले कई दशकों में खेलों की हवा का रुख कुछ यों हुआ है कि हम मुरीद बने बैठे हैं एक औपनिवेशिक खेल के। और इस खेल में भी चैपल-गांगुली की हालिया हाथापाई दे तो यही पता चलता है कि खेलों पर आयोजक, चैलन, चयनकर्ता और राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि अब खिलाड़ी और कोच भी अपने हुनर नहीं राजनीतिक दाँवपेंचों के इस्तेमाल में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।हम बरसों से सुनते देखते आये हैं राष्ट्रीय और आलम्पिक्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में चयन के सियासी खेल की, कहानी जो हर बार बेहयाई से दोहराई जाती है। हमारे स्क्वॉड में जितने खिलाड़ी नहीं होते उनसे ज़्यादा अधिकारी होते हैं। हॉकी जैसे खेल, जिनमें हम परंपरागत रूप से बलशाली रहे, में हम आज फिसड्डी हैं और निशानेबाजी जैसे नए खेलों पर अब हमें आस लगानी पड़ रही है। 100 करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक स्वर्ण पदक के लिये तरसता है।हम यह भी सुनते रहते हैं कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड आयोजनों में स्टैमिना के मामले में युरोपिय देशों का सामना नहीं कर सकते, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जानबूझ कर हॉकी जैसे खेलों के नियमों में इस कदर बदलाव किये हैं कि सारा खेल ड्रिबलिंग जैसे एशियाई कौशल की बजाय दमखम का खेल बन गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि कब तक हम ये बहाने बनायेंगे। चीन भी तो एशियाई देश है और हॉकी पाकिस्तान भी खेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खेलों को छोड़ें, हमारे अपने घरेलू स्तर पर कितने बड़े आयोजन होते हैं? क्या स्कूलों में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल पर जोर दिया जाता है? मुझे यह विचार बड़ा रोचक लगा कि, "छोटी या स्थानीय देशभक्ति से खेलों का प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण हो सकेगा और इससे खेलों की राष्ट्रीय देशभक्ति फलेगी फूलेगी ही"। गेल का कहना यही है कि खेल की देशभक्ति भारत में केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लिये ही सामने आती है जबकि अमेरिका में ऐसा नहीं हैं।
तकरीबन कोई भी ध्यान नहीं देता अगर अमेरीका किसी अन्य देश के साथ खेल रहा हो जब तक की मामला आलम्पिक्स का न हो। अमेरिका में बड़े खेल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बल्कि महानगरीय या राज्य विश्वविद्यालय स्तर पर होते हैं...वहाँ छोटे शहरों, स्कूलों के स्तर पर देशभक्ति है। हर हाईस्कूल का अपना चिन्ह है, गीत है, विरोधी हैं। अमेरिका का ध्यान केवल फुटबॉल, बास्केटबॉल, बेसबॉल जैसे बड़े खेल ही नहीं खींचते। बच्चे हर स्पर्धा में भाग लेते हैं, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, बॉली बॉल, आइस हॉकी, जो भी खेल हो।निःसंदेह दिक्कतें और भी हैं। कब्बडी, खोखो, मलखम्ब जैसे घरेलू खेलों के खिलाड़ियों का न तो नाम हमारे राष्ट्रीय अखबारों में आता है न ही कोई उन पर पैसा लगाने को तैयार होता है। पैसों की बात तो अहम है, खास तौर पर जब खेल टेनिस जैसा ग्लैमर वाला न हो। कई दफा यह लगता है कि खेलों का बजट आखिर रक्षा या विज्ञान जितना क्यों नहीं होना चाहिये? गेल का इस विषय पर विचार अलग है। उनका कहना है कि सरकारी पैसे पर निर्भरता हो ही क्यों? अमरीका के विश्वविद्यालय खेलों के मर्केन्डाईज़ और टिकटों से कमा लेते हैं, खेलों से कमाई होती है तो इनके भरोसे गरीब परिवारों के बच्चे खेल वज़िफों पर विश्वविद्यालय में पढ़ लेते हैं। निजी फंडिंग से ही स्टेडियमों और खेल का साजो सामान का जुगाड़ होता है। सानिया मैनिया के दौर में क्या कोई इस बात को सुनेगा?
२००९ मुबारक
बवंडर के समस्त पाठकों व उनके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

बुधवार, 25 मार्च 2009

अब चाहिए एक हाइब्रिड नेता...

देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुनाव का बिगुल बज चुका है। आदर्श आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले सरकारें अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए एक से बढ़कर एक घोषणाओं, शिलान्यास, उद्‌घाटन, लोकार्पण और जातीय भाईचारा सम्मेलन जैसे कार्यक्रम पूरी तन्मयता से कर रही थीं। समय कम पड़ गया। आजकल नेताजी जनता की सेवा के लिए दुबले होते जा रहे हैं। इस समय अब मतदाता के सामने सोशल इन्जीनियरिंग के ठेकेदार पैंतरा बदल-बदल कर आ रहे हैं।
वोटर की चाँदी होने वाली है। भारतीय लोकतंत्र का ऐसा बेजोड़ नमूना पूरी दुनिया में नहीं मिलने वाला है। यहाँ राजनीति में अपना कैरियर तलाशने वाले लोग गजब के क्षमतावान होते हैं। इनकी प्रकृति बिलकुल तरल होती है। जिस बरतन में डालिए उसी का आकार धारण कर लेते हैं। जिस दल में जाना होता है उसी की बोली बोलने लगते हैं। पार्टीलाइन पकड़ने में तनिक देर नहीं लगाते।
आज भाजपा में हैं तो रामभक्त, कल सपा में चले गये तो इमामभक्त, परसो बसपा में जगह मिल गयी तो मान्यवर कांशीराम भक्त। कम्युनिष्ट पार्टी थाम ली तो लालसलाम भक्त। शिवसेना में हो जाते कोहराम भक्त, राज ठाकरे के साथ लग लिए तो बेलगाम भक्त। और हाँ, कांग्रेस में तो केवल (madam) मादाम भक्त...!
कुछ मोटे आसामी तो एक साथ कई पार्टियों में टिकट की अर्जी लगाये आला नेता की मर्जी निहार रहे हैं। जहाँ से हरी झण्डी मिली उसी पार्टी का चोला आलमारी से निकालकर पहन लिया। झण्डे बदल लिए। सब तह करके रखे हुए हैं। स्पेशल दर्जी भी फिट कर रखे हैं।
हर पार्टी का अपना यू.एस.पी.है। समाज का एक खास वर्ग उसकी आँखों में बसा हुआ है। जितनी पार्टियाँ हैं उतने अलग-अलग वोटबैंक हैं। सबका अपना-अपना खाता है। राजनीति का मतलब ही है - अपने खाते की रक्षा करना और दूसरे के खाते में सेंध मारने का जुगाड़ भिड़ाना। आजकल पार्टियाँ ज्वाइण्ट खाता खोलने का खेल खेल रही हैं ताकि बैंक-बैलेन्स बढ़ा हुआ लगे। कल के दुश्मन आज गलबहिंयाँ डाले घूम रहे हैं।
नेताजी माने बैठे हैं कि वोटर यही सोच रहा है कि अमुक नेताजी मेरी जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, सम्प्रदाय, व्यवसाय, बोली, भाषा, आदि के करीब हैं तो मेरा वोट उन्हीं को जाएगा। उनसे भले ही हमें कुछ न मिले। दूसरों से ही क्या मिलता था? कम से कम सत्ता की मलाई दूसरे तो नहीं काटेंगे...! अपना ही कोई खून रहे तो क्या कहना?
जो लोग देश के विकास के लिए चिन्तित हैं, राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचार, अपराध, अशिक्षा, और अराजकता को मिटाने का स्वप्न देखते हैं, वे भकुआ कर इन नेताओं को ताक रहे हैं। इनमें कोई ऐसा नहीं दिखता जो किसी एक जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, सम्प्रदाय, व्यवसाय, भाषा, बोली आदि की पहचान पीछे धकेलकर एक अखिल भारतीय दृष्टिकोण से अपने वोटर को एक आम भारतीय नागरिक के रूप में देखे। उसी के अनुसार अपनी पॉलिसी बनाए। आज यहाँ एक सच्चे भारतीय राष्ट्रनायक का अकाल पड़ गया लगता है।
हमारे यहाँ के मतदाता द्वारा मत डालने का पैटर्न भी एक अबूझ पहेली है। जो महान चुनाव विश्लेषक अब टीवी चैनलों पर अवतरित होंगे वे भी परिणाम घोषित होने के बाद ही इसकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत कर सकेंगे। इसके पहले तुक्केबाजी का व्यापार तेज होगा। कई सौ घंटे का एयर टाइम अनिश्चित बातों की चर्चा पर बीतेगा। इसे लोकतन्त्र का पर्व कहा जाएगा।
मेरे मन का वोटर अपने वोट का बटन दबाने से पहले यह जान लेना चाहता है कि क्या कोई एक व्यक्ति ऐसा है जो अपने मनमें सभी जातियों, धर्मों, क्षेत्रों, रंगो, सम्प्रदायों, व्यवसायों, भाषाओं और बोलियों के लोगों के प्रति समान भाव रखता हो? शायद नहीं। ऐसा व्यक्ति इस देश में पैदा ही नहीं हो सकता। इस देश में क्या, किसी देश में नहीं हो सकता। इस प्रकार के विपरीत लक्षणों का मिश्रण तो हाइब्रिड तकनीक से ही प्राप्त किया जा सकता है।
इस धरती पर भौतिक रूप से कोई एक विन्दु ऐसा ढूँढा ही नहीं जा सकता जहाँ से दूसरी सभी वस्तुएं समान दूरी पर हों। फिर इस बहुरंगी समाज में ऐसा ज्योतिपुञ्ज कहाँ मिलेगा जो अपना प्रकाश सबपर समान रूप से डाल सके?
प्लेटो ने ‘फिलॉस्फर किंग’ की परिकल्पना ऐसे ही नहीं की होगी। उन्होंने जब लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते देखा होगा और इसमें पैदा होने वाले अयोग्य नेताओं से भरोसा उठ गया होगा तभी उसने ‘पत्नियों के साम्यवाद’ का प्रस्ताव रखा होगा। यानि ऐ्सी व्यवस्था जिसमें हाइब्रिड के रूप में उत्कृष्ट कोटि की संतति पायी जा सके जिसे अपने माँ-बाप, भाई-बन्धु, नाते रिश्ते, जाति-कुल-गोत्र आदि का पता ही न हो और जिससे वह राज्य पर शासन करते समय इनसे उत्पन्न होने वाले विकारों से दूर रह सके। राजधर्म का पालन कर सके।
आज विज्ञान की तरक्की से उस पावन उद्देश्य की प्राप्ति बिना किसी सामाजिक हलचल के बगैर की जा सकती क्या? ...सोचता हूँ, इस दिशा में विचार करने में हर्ज़ ही क्या है?

सोमवार, 23 मार्च 2009

A For Arunachal Pradesh
- Land of Dawn-Lit Mountains.


- Originally known NEFA(North East Frontier Agency).


- It was a Union Territory from January 20, 1972 to February 19, 1987.


- It was declared a state on February 20, 1987.


- India's largest Buddist monastery at Tawang.


- Separated from Asaam.


- In 1913-14, the British administrator, Sir Henry McMohan, drew up the 550-mile McMohan Line as the border between British India and Tibet during the Simla Conference, as Britain sought to advance its line of control and establish buffer zones around its colony in South Asia.

if ppl have some other fantastic facts, just leave a comment. I'll surely update the post.


To Be continued with new State...............