बुधवार, 4 मार्च 2009

आर्थिक संकट के दौर में दरियादिली की मिसाल
सदियों से अमरीका आप्रवासियों का ड्रीमलैंड रहा है, उसका सबसे बड़ा आकर्षण है, यहां की आर्थिक खुशहाली और हरएक को प्राप्त ऐसे सुअवसर कि वो जिस बुलंदी पर पहुंचना चाहता है उसके लिए अपनी किस्मत आज़मा सकता है.सरकार इसमें कोई रुकावट नहीं बनती, लेकिन कुछ करने और पाने की भावना उनमें कड़ी होड़ पैदा कर देती है, जिससे इंसान का एक दूसरे के साथ रिश्ता कमज़ोर पड़ जाता है.दूसरी और ये भी सच है कि मुश्किल के दौर में ही लोगों की इंसानियत की परख होती है. अमरीका में जब कि लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं हैं, लोगों ने अपने घर खो दिए हैं, बहुत से लोग कम खाकर गुज़ारा कर रहें हैं, ऐसे में भी बहुत से अमरीकियों की दरियादिली में कोई कमी नहीं आयी है. ऐसी ही एक मिसाल हाल में ही देखने में आई कि ऐसे कठिन समय में एक महिला की किसी ने कैसे मदद की.अपने दो बच्चों के साथ एक कस्बे से बड़े शहर में आने पर उसे छोटा- मोटा काम तो मिल गया पर गुज़ारा बड़ी मुश्किल से कर रही थी कि वो काम भी छूट गया. अपनी आख़री तनखाह के पैसे लेकर वो खाने पीने का सामान लेने के लिए उसी परिचित स्टोर में गई जहां वो अक्सर जाया करती थी पर उस दिन उसके दिमाग में बराबर ये घूम रहा था, इन पैसों से कुछ दिन तो गुज़र जायेंगे, लेकिन आँखे और उसकी आवाज़ उसका साथ नहीं दे रहीं थी. और जब भी कोई उससे हाल चाल पूछता, बरबस उसके मुहं पर हकीकत आ जाती कि उसकी नौकरी चली गयी है. बातें करते करते जब वो सामान के साथ काउंटर पर पहुंची और हिसाब होने के बाद उसने पैसे देने के लिए अपना हाथ बढाया, उसे सुनाई दिया कि आपके पैसे तो चुका दिये गये हैं, महिला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, एक हाथ इशारा कर रहा था वो दरवाज़े के बाहर जा रहे व्यक्ति ने आपकी ग्रोसरी के पैसे अपना हिसाब चुकाते समय ही दे दिये थे. उसके मुहं से निकला कि बुरे समय में भी कुछ लोगों में इंसानियत कायम है....
कबीरा चला कैलिफोर्निया......
मई के महीने में कैलिफोर्निया के कबीर प्रेमी, प्रहलाद सिंह टिपनया के सुरों में स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के मंच पर कबीर बानी सुनेंगे. कबीर पर बनी चार फिल्में कैलिफोर्निया के स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में कबीर उत्सव के दौरान दिखाई जा रहीं हैं और जिस कवि की रचनाएँ भारत में सदियों से गाई जा रहीं हैं, अब उनकी गूँज कैलिफोर्निया में भी लोगों को लुभा रही हैं. रूढ़िवाद और कट्टरपंथ का खुलकर विरोध करने वाले संत कबीर ६०० साल पहले कह गए कि परमात्मा न कैलाश पर हैं न काबा में, न पुराण में, न कुरान में. कई कबीर प्रेमियों का मानना है कि कबीर के दोहे और कवितायें आज की दुनिया पर भी उतनी ही लागू होती हैं जितनी पहले थी.चलो हमारे देस नाम की इस फ़िल्म में निर्देशिका शबनम विरमानी ने देखा की मालवा के दलित समाज के प्रहलाद सिंह टिपनया उत्तर भारत में कबीर की आवाज़ लोगों तक पहुंचा रहे हैं. स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर लिंडा हेस भी कबीर में लीन हैं और उनका भारत से प्रेम काफ़ी पुराना है.कबीर की खोज में निकली फ़िल्म की निर्देशिका विरमानी ने लिंडा हेस को भी इस यात्रा की एक अहम् कड़ी माना है. उनके वाराणसी में गुज़ारे हुए दिन और उनका स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी में आज काम, दोनों ही कबीर से जुड़े हैं.